साल 1993 यानी तकरीबन तीन दशक बाद पहली बार राजस्थान विधानसभा चुनाव में सरकार के रिपीट होने को लेकर विपक्ष भी आशंकित है। कोरोना और पायलट प्रकरण के बावजूद मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने जिस तरह जन कल्याणकारी योजनाओं से सरकार के पक्ष में माहौल बनाने की रणनीति बनाई, विपक्ष सकते में है। आलम यह है कि बीजेपी के पास अपना ‘ब्रह्मास्त्र’ छोड़ने के अलावा कोई चारा नहीं बचा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस वक्त बीजेपी के लिए ‘ब्रह्मास्त्र’ ही माने जाते हैं। यह दीगर बात है कि पंजाब, हिमाचलप्रदेश और कनार्टक में यह ‘ब्रह्मास्त्र’ बेअसर रहा। बीजेपी के लिए बेचैन कर देने वाली स्थिति यही है कि अगर राजस्थान में ‘मोदी का जादू’ नहीं चला तो फिर पूरे देश में अलग संदेश जाएगा और फिर अगले साल यानी 2024 का आम चुनाव पार्टी के लिए ‘भारी’ पड़ सकता है। यही वजह है कि केंद्रीय मंत्रियों, सांसदों और दूसरे राज्यों के विधायकों की फौज राजस्थान में वार्ड स्तर पर नुक्कड़ सभाएं करने के लिए मजबूर हो रहे हैं। प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और राष्टीय अध्यक्ष का बार-बार राजस्थान दौरे इसी का परिचायक है।
यह सच है कि गहलोत की योजनाओं की चकाचौंध से बीजेपी सहमी हुई है लेकिन इसके लिए पार्टी खुद भी जिम्मेदार है। मोदी-शाह की जोड़ी जिस तरह पार्टी के भीतर अपने विरोधियों को ठिकाने लगाने लगा रही है, इससे भी कई जगहों पर पार्टी को नुकसान हो रहा है। राजस्थान भी बड़ा प्रमाण है। राज्य की राजनीति में अगर बीजेपी की बात करें तो पूर्व सीएम वसुंधराराजे सर्वाधिक लोकप्रिय चेहरा हैं। भले संघ से अनबन हो, मोदी-शाह उन्हें पसंद न करें लेकिन जनता में उनका जादू बरकरार है। सच तो यह है कि मोदी-शाह एक दशक के दौरान राजस्थान में राजे के बराबर नेता तैयार नहीं कर पाए। यही वजह है कि आज बीजेपी को बड़ा दांव खेलना पड़ रहा है, खुद प्रधानमंत्री को एक मुख्यमंत्री से मुकाबला करने के लिए ‘चुनावी मैदान’ में उतारना पड़ रहा है। देखा जाए तो यह संघीय ढांचे के लिहाज से भी उचित न होगा। प्रधानमंत्री पूरे देश का होता है, एक पार्टी विशेष का नहीं। ऐसे में जब प्रधानमंत्री का ध्यान देश के संवेदनशील मुद्दों पर केंद्रित रहना चाहिए तो वे एक पार्टी के लिए रणनीतिकार और प्रचारक की भूमिका में अधिक नजर आते रहे हैं।
विरोधियों को ठिकाने लगाने की जिद और सत्ता विस्तार का जुनून नेता को नहीं का नहीं छोड़ता। मोदी-शाह अब उसी की कीमत चुकाने की राह पर हैं। कहना न होगा, बीजेपी अब नियमों में बदलाव के लिए मजबूर हो रही है जिसे उसने खुद बनाई है। मसलन, 70 प्लस उम्र वाले नेताओं और मुस्लिम वर्ग को को टिकट नहीं देना। माना जा रहा है कि दोनों ही स्थिति में बदलाव की चर्चा की है। पार्टी अब प्रयोग करने की स्थिति में नहीं है। मुसलमानों का साथ बीजेपी के लिए जरूरी हो गया, लगता है। सर्वे रिपोर्ट के बाद बीजेपी बेचैन है। पूरी 200 सीटों के लिए हुए सर्वे में जिस तरह परिणाम सामने आए हैं, पार्टी को लगता है कि अगर दोनों नियमों पर रहे तो 25 फीसद सीटों पर ही सिमटना पड़ सकता है। ऐसे में सर्वे रिपोर्ट उन बुजुर्गवार नेताओं के लिए उम्मीद की किरण बनकर उभरी है जिन्हें बीजेपी कुछ समय पहले तक अनुपयोगी मान रही थी या यूं कहिए, उन्हें ‘मार्गदर्शक मंडल’ में भेजने की तैयारी कर रही थी। रिपोर्ट में साफ कहा गया है कि अधिकांश सीटों पर इन बुजुर्गवार नेताओं का कोई मुकाबला नहीं है। अगर इनकी अनदेखी हुई तो पार्टी की पराजय तय है। सर्वे में यह भी बताया गया है कि अगर पार्टी ने पिछली बार की तरह इस बार भी मुसलमानों को टिकट देने में आनाकानी की तो उसे करीब 40 सीटों पर नुकसान उठाने के लिए तैयार रहना चाहिए। हालांकि ओवैसी की सक्रियता से पार्टी को भरोसा है कि वे बीजेपी के लिए राह आसान करेंगे। बावजूद इसके बीजेपी कम से कम 10 मुसलमानों को टिकट देने पर विचार करने लगी है। काबिलेगौर है कि पिछले चुनाव में पार्टी ने आखिर में एकमात्र युसून खान को टिकट दिया था।
कुल मिलाकर, विधानसभा चुनाव दिलचस्प होने के आसार हैं। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने अकेले दम पर इस चुनाव को उस मोड़ पर पहुंचा दिया है जहां पर बीजेपी के रणनीतिकारों को बार-बार अपने दांव बदलने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है। काबिलेगौर है कि अक्सर यह बात सामने आती रही है कि कांग्रेस जहां पर सोचना खत्म करती है, बीजेपी वहीं से सोचना शुरू करती है। इस दौर में गहलोत के दांव बीजेपी के लिए सिरदर्द बने तो यह कहना अतिशयोक्ति नहीं कि राजस्थान का यह चुनाव न सिर्फ सबसे खास बल्कि बेहद दिलचस्प होगा, इसमें दो राय नहीं।
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