क्रांति का घर जमाई!

जैनेद्र कुमार झांब.
 बुद्धिजीवी होना एक परमानन्द की सी स्थिति है। बुद्धिजीवी दुनिया का एरियल व्यू लेता है, बिना जूता उतारे ही जमीन की गर्मी से इसके पैरों में छाले पड़ जाते हैं, उन छालों के फूटने की पीड़ा का वर्णन पूछो ही मत! 
किसान से ले कर श्मशान तक का सारा हाल इनके बालिश्त भर के सीने में सुलगता रहता है। उस आग का ताप शासन-प्रशासन सभी महसूस करते हैं। अधिकतर यह प्रजाति मंचों पर पायी जाती है। दुर्धटनाएं, दंगे, बाढ़, अकाल इनके उन्नयन हेतु आदर्श वातावरण उपलब्ध करवाते हैं। जैसे परजीवी परायों से प्राण चूसते हैं वैसे ही बुद्धिजीवी बुद्धि के प्राणों का दोहन सम्यक भाव से करते हैं। सुबह-सवेरे बुद्धिजीवी निराकार ब्रह्म का गुणगान कर सकता है, दोपहर को सत्यनारायण की कथा में मुख्य अतिथि हो सकता है और शाम को हाला प्याला मधुशाला के बिना कैसा निवाला ? 
अगली सुबह पक्का नास्तिक। 
 अधिकतर बुद्धिजीवी साम्यवादी ही पाये जाते हैं, साम्यवाद और बुद्धि का माँ और बेटी का रिश्ता होता है, और यहाँ बेटी कभी ससुराल नहीं जाती। अलबत्ता क्रांति का घर जमाई इनके आंगन को आबाद करता है। यूँ तो यह क्रांति कभी कभार ही दहलीज लांघती है। अगर निकले भी तो पिछले दरवाजे से फिर अंदर।
 ये लोग पूरी रोशनी में सर्वहारा दिखाई देते हैं और कुछ कम प्रकाश हो तो बुर्जुआ सा आभास देते हैं। अर्द्धनारीश्वर वाला सा कुछ मामला हो मानो।
 सभी बुद्धिजीवी एक समान नहीं होते, कुछ मूर्ख भी होते हैं, अब मूर्खों की भला क्या चर्चा। 
(लेखक राजनीतिक, सामाजिक और साहित्यिक मसलों पर कटाक्ष के लिए जाने जाते हैं)

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